प्रेरणा स्त्रोत

वर्षों पूर्व शरद पूर्णिमा की शुभ रात्रि में जन्म हुआ बालक विद्याधर का वह दिन था शरद पूर्णिमा 10 अक्टूबर 1946 । जिन्हें आज हम धरती के देवता, हम सब के आराध्य, जैन व अजैनों के भगवान्, चेतन-अचेतन कृतियों के सृजेता, इन्द्रियसुख विजेता, मोक्षमार्ग के प्रणेता और परिशहों को छाती देने वाले आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के रूप में पूजते है, जिनका जन्म कर्नाटक की सदलगा भूमि पर श्री मल्लप्पा जी अष्टगे और माता श्रीमती जी के घर आंगन में हुआ था । आप अपने माता-पिता की 6 संतानों में द्वितीय संतान होकर भी अद्वितीय थे।

लौकिक शिक्षा कन्नड़ भाषा में 9 वीं मैट्रिक पास आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज सचमुच यथानाम तथा गुण हैं, लौकिक और परलौकिक विद्या के पारगामी हैं । कन्नड़, हिन्दी, अंग्रेज़ी, मराठी, संस्कृत व प्राकृत भाषा में तज्ञ, आध्यात्म व ग्रंथो के ज्ञाता, दशर्नशास्त्र, नीतिशास्त्र, इतिहास, भूगोल, विज्ञान व गणित जैसे सभी लौकिक विषयों में पारंगत ज्ञान के धनी हैं।

स्वभाव से ही मृदु, हितमित प्रियभाषी, जीवदया के मसीहा, दिगम्बरत्व के पुजारी, जैनत्व के गौरव, साधना के अविराम यात्री बालक विद्याधर ने अपने वैराग्य की अनंत यात्रा चूलगिरि अतिशय क्षेत्र राजस्थान की भूमि पर ब्रह्मचर्य व्रत के साथ शुरु की और श्रवणबेलगोला कनार्टक की पवित्र भूमि पर देशभूषण जी महाराज से सात प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये।

मोक्षाभिलाषी, वैराग्यदृढ़, श्रमणचर्या आचरित करने के तीव्र पिपासु ब्र. विद्याधर की यह प्यास उस समय शांत हुई जब अजमेर की पावन भूमि पर मुनिश्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज के करकमलों से मुनिदीक्षा धारण कर मोक्षपथ के स्थायी सदस्य बन गये । ब्र. विद्याधर बन गये मुनि 108 विद्यासागर जी महाराज । अब धरती ही जिनका बिछौना, आकाश ही जिनका उड़ौना और दिशाएँ ही जिनका वस्त्र थी ऐसे निर्ग्रंथ साधक सभी ग्रंथियों की ग्रंथि को सुलझाने हेतु दिन-रात, अथक परिश्रम में लीन हो गये । साथ ही अपने वयोवृद्ध गुरु के रुग्ण शरीर की सेवा में अहर्निश रहने लगें।

ज्ञान प्राप्ति की असीम भावना व लगन ने एक कन्नड़ भाषी को भी संस्कृत व प्राकृत भाषी ग्रंथो का ज्ञाता बना दिया । उनकी लगन, विनय, समर्पण व निस्वार्थ: सेवा से प्रभावित आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने उन्हें आचार्य पद देने का विचार किया और अपने मनोभाव को विद्यासागर जी के समक्ष प्रकट किया किन्तु सांसारिक पद लिप्सा से निर्लिप्त मुनिश्री को ये बात कहाँ रुचने लगी । उन्होंनें इन्कार कर दिया किन्तु ज्ञानसागर जी ने आदेश पूर्वक करुणापूर्ण हदय से गुरुदक्षिणा मांगी और कहा – “तुम्हें इस वृद्ध गुरु को निर्दोष संल्लेखना करानी है अत: आचार्य पद स्वीकारो” । गुरु के आदेश को हितकारी समझ भारी मन से उन्होंने ये आज्ञा शिरोधार्य की और तन-मन से गुरु सेवा करते हुए गुरूजी की संल्लेखना सम्पन्न करायी ।

गुरु का साया सिर से उठा, बचे आचार्य विद्यासागर जी नितांत, अकेले किन्तु, क्षेत्र की दूरी, दूरी नहीं होती, “संघ को गुरुकुल बनाना” जैसे गुरु उद्गारों ने उनकी चेतना को झंकृत किया और गुरु की तस्वीर हृदय में संजोये गुरु आज्ञा पालन हेतु निकल पड़ा मोक्षपथ का अविराम यात्री अकेले ही ... और तब से अब तक अपने प्रति वज्र से भी कठोर, दूसरों के प्रति नवनीत से भी कोमल बनकर शीत, ताप एवम् वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक, अथक रूप में प्रवर्तमान हैं । श्रम, विनय, अनुशासन, संयम तप और त्याग की अग्नि में तपी आपकी साधना गुरु आज्ञा पालन और जीवमात्र के कल्याण की भावना से सतत प्रवाहित है । ऐसे गुरुदेव ही हैं हम सभी के, प्रतिभास्थली के पूज्य प्रेरणा स्रोत ... ... ...